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प्रीति आभा

प्रीति आभा  .....

प्रीति की अपनी ही आभा होती है ....अपना ही विलास और विस्तार , जो सर्वत्र से हट केवल एक पर केंद्रित होती है , और पुनः तरंगवत फैलकर सबको समेट लेना चाहती है । प्यारा अथवा प्रिय , वह जिसे हम प्रेम करते , और प्यारे का प्यारा ! वह जिसे प्यारा प्रेम करे या जो प्यारे से प्रेम करे । प्रेम का यह सहज स्वभाव होता है , कि प्रेमास्पद से जुडी प्रत्येक वस्तु में स्वभाविक प्रीति प्रदान कर देता है । प्रीति जुडती तो मात्र एक में है , परंतु विस्तार अनन्त में पा लेती है । मुझे जो प्रिय है , उससे जुडे प्रत्येक व्यक्ति में स्वतः अनुराग प्रदान कर देगी मुझे । प्रेमास्पद से जुडे व्यक्ति से प्रेमास्पद सा रस प्राप्त करा देती है प्रीति । उससे जुडकर हम अपने प्यारे से जुडने जैसा हर्ष पाते हैं । एक और अत्यंत महत्वपूर्ण लक्षण है प्रेम का .....प्रेम कभी अप्रेम में , प्रीति कभी अप्रीति में नहीं बदल सकती । यदि वह बदली है तो यह तो निश्चित है कि कभी प्रीति न थी । और कुछ भी हो, पर प्रीति नहीं ......बदलता स्वार्थ मात्र है । यदि स्वार्थ पूर्ण होता रहे तो प्रीति का भ्रम कराता रहेगा , पर खंडन होते ही , प्रीति आवरण को छिन्न भिन्न कर अपने वास्तविक रूप को उजागर करते देर ना लगेगी । मेरा मानना है , प्रेम कभी अप्रेम नहीं होता .....पर इसे अनुभव करने से पहले यह मानना अनिवार्य है , कि प्रेम की चर्चा है , स्वार्थ की नहीं । तो भेद क्या प्रेम और स्वार्थ में ! ...... किसी सुंदर सुंगधित पुष्प को खिले देखा है ......देखते ही छूने का मन करता , जी करता इसकी मीठी सुगंध को सांसो में भर लें , इसके कोमल स्पर्श को चुरा लें ...... बस कैद कर लें .....यह स्वार्थ है । पर यदि किसी निरीह कोमल पुष्प को देख उस पर न्यौछावर होने को जी अकुलावे , मन करे कि यह मधुर सुगंध सबको मिले ....इसकी कोमलता यूं ही बनी रहे , खिली रहे .....यही वास्तव में प्रेम है ....यह पुष्प ऐसे ही जीवन का उत्सव लुटाता रहे ....यह खुश रहे , यह प्रसन्नता से प्रफुल्लित होता रहे , तो मानिये कि प्रीति की आभा खिलने लगी है हिय में । भोगने की जगह अर्पित होने की लालसा अकुलावे .....पोषण की तरंगे हिय में लहरावें .....देते देते भी देने की प्यास ना बुझे ......तो ही मानिये कि प्रीति की आभामयी किरण ने अन्तस्थल को स्पर्श कर लिया है । यद्पि प्रेम की सर्वोच्चम् और सर्वोत्कृष्टम भाषा ' *मौन '* है , पर अनादि काल से इसे कहा ही जा रहा है , और कहा जाता रहेगा , क्योंकी इसका चिंतन भी रससिक्त करता ह्रदय को ...मन को ....लेखनी को ।।

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