प्रेम में आराध्य की निजता अपनी होती है ......
कहा गया कि स्पष्ट करुँ ! परंतु कभी कभी कुछ भाव ऐसे होते हैं जो मात्र ह्रदय से अनुभूत किये जा सकते हैं .....
इसे अनुभूत करने के लिये प्रेम की सुगंध का ही आश्रय लेना पडेगा ।
प्रेम क्या ! जो प्रेमी को प्रेमास्पद में विलीन कर दे । उसका समस्त स्व प्रिय में तिरोहित होकर प्रिय का स्वत्व ही रोम रोम से झरने लगे ......प्रिय का सुख प्रिय की इच्छा प्रिय का रस और प्रिय की निजता ......
हमारी भी तो निजता होती है न !......हम उसका गोपन करके रखते , अपनी लज्जा का मर्यादा का आदर करते और अन्यों से भी यही अपेक्षा करते ।
तो क्यों भक्ति के नाम पर इष्ट की अंतरंग छवियों को कहीं भी चिपका देते ? क्या हम अपनी इस प्रकार की छवि को सार्वजनिक करने के लिये सहज होंगे ? नहीं ! क्योंकी वह हमारी मर्यादा है .....यदा कदा इस प्रकार की छवियाँ दिखती रहती हैं जिन्हें देख ह्रदय क्षुब्ध होता है ।
जिस प्रकार उनका सुख ही स्व सुख होता है , उनकी मर्यादा , लज्जा और निजता भी अपनी हो जाती है । ह्रदय का विषय है , वाणी से अधिक व्यक्त करना दुरुह है ।
यह भाव प्रेम का एक गुण इंगित करता है , जो सहज है स्वतः है ।
अति सुंदर
ReplyDeleteहरि गुरु और श्यामाश्याम.... ही हमारे सब कुछ हैं,
मैं उनकी अंतरंग लीलाओं के दृश्य को ऐसे ही सबके सामने नही प्रकट करूँगा।
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