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सखि विरह

सखि विरह

सखि का निज कुछ ह्वै तो वो दोऊ प्राणलाडिले ह्वैं। सखि युगल के ह्रदय का प्रकट स्वरूप  .....युगल का पारस्परिक विरह ही सखि का विरहानल  ......प्राण विकल होवें ह्वैं.....तप्त होते ह्वैं .....परंतु निज के लिये नहीं .....वास्तव में सखि का निज भी मात्र श्रीयुगल ही होवें । युगल से पृथक कुछ ........जे पृथकता क्या होवे ह्वै री !...........कोई कहे तुम तत्सुख की मूरत .....अच्छा ! तत्सुख ! जे कहा होवे .......वही जिसके ताईं तुम प्रतिपल आकुल ......वो तो मेरो ही सुख ह्वै री......और कछु भी होवे ह्वै का ........जे दोऊ प्रानलडैते ही तो मम् सकल प्रानराशि ........कहा कहें कौन सखि ! श्रीलालजू के नयन नित प्यारी के दर्शन से पगे रहवें .....श्रीलाडिली नित प्यारे के रोम रोम में उमगती रहवें ......यही लालसा जब मूर्तिवंत होय थिरके , सोई सखि कहलावे .....नित नित नवल चातुरी सौं युगल को रसास्वादन करावे की चटपटी , जाके जिय मों हुलसती रहवे सोई सखि ......श्रीनागरी के चारु दर्शनों से पिय हिय माहीं उपजी प्रफुल्लता , जब तट तोड बह जावे और वाके रोम रोम कू रसीलो करि राख्ये , सोई सखि .......निकुंजन माहीं प्यारी की किंकणी की प्रति झन्कार से जाकी देहवल्लरि कंपायमान होवे , सोई सखि ......गहन रससिंधु में सुधि बुधि खोते सुकुमार रसशिशुओं को पुनः पुनः नव नवल रस उत्कंठाओं से रसपान में पृवृत्त करे , सोई सखि ........युगल को पता भी ना होवे और उनमें नवल लालसाओं की तरंगों को नित्य उद्वेलित करती रहें , सोई सखि ......कबहुँ धरा हो , उन लटपटे , डगमगाते कोमल चरणारविंदों को , सुकोमलता से हिय संपुट में सहेजती जावे , सोई सखि .....तो कबहुँ भाल पर जगमगाते स्वेद कणों को सीतल मंद समीर बन  पी जावे , सोई सखि .......कबहुँ अकारण ही अपनी मधुर झन्कार से लालजू के रस में निश्चेष्ट होते लालजु को सहजहि उबार लेवे , सोई सखि .......तो कबहुँ वामभाव रसास्वादन करावें हित , प्यारी के मन मान सों आय विराजे , सोई सखि ........कबहुँ प्यारी के अधरों की लालिमा हो गहरावे .....तो कबहुँ केशराशि की स्निग्धता होय इठलावे , सोई सखि ........ क्या सागर की लहरों की गणना होय सके........ना ? .......पर प्रत्येक लहर सागर की .....प्रत्येक सखि नित्ययुगल के परस्पर सेवालालसा रूपी  अनन्त सागर की थिरकती लहर है ......जिसका उद्गम और विलय केवल यही युगल सुखसागर है ........

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