रस .......
क्या लिखुँ तुम्हारे संबंध में ! क्योंकी वाणी विषय जो नहीं तुम , पर फिर भी जी ललचा रहा कि किंचित तो तुम्हारा परिचय होवे । तो कुछ अपने मन को , कुछ मति को , कुछ हिय को , कुछ शब्दों से तुम्हारा स्पर्श करने का दुस्साहस करुँ ।
रस ......तुम रसराज की सत्ता हो , रस की सत्ता महाभाव से प्रस्फुटित होती , महाभाव जो निकुंजेश्वरी के ललित श्रीविग्रह के रूप में नित्य लीलारत है। महाभाविनी के रोम रोम से झरित होते तुम , रसराज को रस के अतल सिंधु में यूँ निमग्न रखते हो कि वह कभी बाहर आवे ही नहीं .......तुम आनन्द नहीं हो प्यारे , तुम तो आनन्द को आनन्द देने वाले आह्लाद हो । प्रेम जब सीमा का अतिक्रमण कर जाता है , तब रसरूप होता है , जो द्रवित ह्रदय का तट तोड , रोम रोम से बहने लगता है । प्यारे ! यह खोजने का प्रयास किया कि तुम्हारा उत्स कहाँ है , तो पाया कि "प्रिय" का सुख ही तुम्हारा मूल है। प्रिय का आनन्द आस्वादन ही प्रेमी में रस होकर सरसता रहता है । प्रेम की यह विलक्षणता है कि प्रिय का सुखभोग ही प्राणाधिकप्रिय हो जाता है और यह सुख , आनन्द जब प्रिय के हिय से होकर आता है तो चमत्कृत रूप से परिवर्तित हो जाता है । आनन्द तो बहुत पीछे छूट जाता है कहीं । आनन्द में भोग है पर रस !.......रस उज्जवल है । उज्जवलता ही रस का स्वरूप है। भगवान आनन्दमय हैं , आनन्दस्वरूप आनन्दसिंधु है पर रसराज .....वो केवल कुंजबिहारी , निकुंजविलासी हैं , क्योंकी यह उज्जवल देश है । यह रासेश्वरी की निजता है , जहाँ सर्वत्र ही रस की सत्ता बिलस रही । उज्जवलता सदैव प्रिय के सुख से ही प्रवाहित होती है । "मैं" युगल को निरखुँ , यह आनन्दोपभोग है ......भोग हो गया न ! ....पर युगल परस्पर को निरखें , तो कुछ शेष ही नहीं। उनके परस्पर निरखने से ही इस उज्जवलधरा का कण कण रससरिता हो बहने लगता है। तुम ही तो अनन्त अनन्त सखि वपु धर प्रियतम (श्रीयुगल) के सुख का नव विलास रच रहे हो और स्वयं भी नित नवायमान होते जा रहे हो ..........तुम्हारा सौंदर्य सदा प्रियसुखाधीन होकर प्रतिपल नवल हो मधुमय ही हो रहा और तुम्हारा माधुर्य प्रिय के सुख को और ...और ....और ......गहरा रहा ।
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