श्रीयुगल प्रेम तत्व .....
श्रीराधा
श्रीकृष्ण प्राप्ति की चिंतामणि श्रीराधिका और श्रीराधिका प्रेम प्राप्ति की चिंतामणि श्रीकृष्ण । समझने में नेक सो कठिन प्रतीत हो सकता परंतु यही सत्य है ॥ यह चिंतन मात्र उनके लिये है जिन परम सौभाग्यशाली जीवों के हृदय में ब्रज भाव से आगे बढकर श्रीयुगल की निकुंज सेवा की भावना उदित हो गयी है ॥ कुछ प्रेमी जीव श्रीराधिका कृपा से श्रीकृष्ण प्रेम का लाभ कर ब्रज लीला रसास्वादन ही करना चाहते हैं , परंतु कुछ इस रस से और आगे के रसपथ को पाना चाहते हैं ॥ ये युगल के परस्पर प्रेम से परस्पर की सेवा भावना का रस क्षेत्र है ॥ इसी रसराज्य में प्रवेश पात्रता की बात ऊपर कही गयी । जिस प्रकार ब्रज प्रवेश की पात्रता विशुद्ध श्रीकृष्ण प्रेम है , उसी प्रकार निकुंज प्राप्ति की पात्रता श्रीराधिका के प्रति गाढ़ अनुराग है , जो कि श्यामसुन्दर के प्रति परम प्रेम के बिना प्राप्त नहीं होता ॥ इस गूढ़ संबंध को समझने के लिये हमें प्रेम के स्वभाव को समझना होगा । प्रेम को समझना इसलिये नहीं कहा क्योंकि उसे तो समझा ही नहीं जा सकता मात्र अनुभव किया जा सकता है ॥ तो प्रेम का स्वभाव क्या है ..वह है प्रेमास्पद का सुख ॥ प्रेमी सदैव प्रेमास्पद को सुखदान के लिये लालायित रहता है ॥ यही नहीं प्रेमी के लिये प्रियतम का सुख उसके प्राणों से अनन्त गुना अधिक प्रिय होता हैै । गहन प्रेम की अवस्था पर तो प्रियतम से भी बढकर प्रियतम का सुख प्राण प्रिय हो जाता है बस यहीं प्राप्त होता है श्रीनिकुंजेश्वरी की सेवा का वास्तविक भाव ॥ यही निकुंज प्रवेश की पात्रता है ॥ श्रीनिकुंजेश्वरी अर्थात् श्रीश्यामसुन्दर का परम सुख , निज सुख ॥ निकुंजेश्वरी ही श्यामसुन्दर का वास्तविक अनन्य सुखधाम हैं ॥ वे उनके सुख का साकार विग्रह मूर्तिवंत स्वरूप हैं ॥ प्रियतम के गहन प्रेम में पगे हृदयों में ही यह स्वरूप उजागर होता है ॥ प्रियतम के सुख की लालसा जब पराकाष्ठा पर पहुँचती है , तो वे स्वयं अपने रस को प्रकट कर देते हैं और प्रेमी को निजप्रिया निकुंजेशवरी की प्रेममयी सेवा मे ले जाते हैं ॥ इस स्थिती पर प्रेमी का आराध्य प्रियतम नहीं प्रियतम का सुख हो जाता है और तब सेवा मिलती है कृष्ण सुखमूर्ति श्रीप्रिया की ॥ यहाँ पहुँचे प्रेमी का जीवन प्राण सर्वस्व श्रीप्रिया हो जाती हैं और प्रेम विह्वल हृदय से बहते नेत्रों के साथ वह पुकार उठता है ......स्वामिनी मम् स्वामिनी ॥ यहाँ बडी विलक्षण स्थिती होती है उसकी , अब प्रियतम से प्रथम प्रिया जू अर्थात् उसकी निज स्वामिनी होतीं उसके लिये ॥ अपने समस्त प्राणों को उनके ही आधीन पाता वह ॥यह दिव्य प्रेम फिर उत्तरोत्तर बढता जाता ॥ यहाँ प्रेम की गाढता के अनुरूप कई स्थितियाँ होती हैं , जो निकुंज में श्रीप्रिया जू की दिव्य सेवा में किंकरी ,दासी ,मंजरी सहचरी आदि नामों से सुशोभित रहती हैं ॥ ये समस्त केवल नाम नहीं वरन दिव्य प्रेम की दिव्य अवस्थाएँ हैं ॥ पंचम पुरुषार्थ अर्थात् प्रेम की भी सर्वोपरि स्थितियों पर अवस्थित परम प्रेम की दिव्य मंगलमयी रसमयी मूर्तियाँ हैं ये , जो नित्य अपनी प्राणाराध्या की सेवा में लीन रहतीं हैं ॥ कैसै कैसे दिव्य भाव हृदय में सहेजे कि क्षणार्ध मात्र को भी उनसे दूर नहीं रह सकती ॥ वे स्वामिनी ही एकमात्र इनकी प्राण स्थली इनके प्राणों का सार हैं ॥ उनकी सेवा उनका सुख ....क्या क्या कहा जावे कि कैसै अपने प्राणों में संभालती उन परम सुकुमार परम प्रेष्ठ प्राण रत्न को ये ॥ श्रीश्यामसुन्दर और उनकी सुखमूर्ति श्रीप्रिया के प्रति इस अनन्त अपार प्रीती रस तथा सेवा भावना की मूल स्वरूपा हैं श्रीललिता जी ॥ श्रीललिता जी ही निकुंज की संयोजिका हैं वहीं संरक्षिका भी ॥ उन्हीं की कृपा कणिका से युगल की दिव्य निकुंज सेवा की पात्रता तथा अधिकार प्राप्त होता है ॥ बिना उन महिमामयी की कृपा के कभी निकुंज प्रवेश नहीं हो सकता इसी हेतु कहा जाता कि कूंजी नित्य विहार की श्रीहरिदासी हाथ ।। वे चाहें तो किसी भी हृदय को रससिद्ध कर निकुंज सेवाधिकार प्रदान कर देंवें ॥ रसिक सिरमौर अनन्त श्रीविभूषित श्रीस्वामी जू की जय जय जय ॥
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