*श्रीप्रिया चरण*
श्रीप्रिया पद पद धरती ...श्रीप्रिया चरण आह सखी री प्राण सर्वस्व श्रीप्रिया कोमल पद मकरन्द ! सहज सरल सरस उर-मंडल (हृदय) में बिहरते मेरी प्रिया के कोमल सुकोमल सरस पल्लव । श्रीविपिन-सखिन-प्रियतम के जीवन सार का सार ये श्रीचरण ...प्राणपद्मिनी ।
कौन सुं कहुँ या श्री मधुराई पँखुडिन की महिमा कि जे प्रियतम कौ सर्वस्व भरण बसन श्रृंगार प्रदाता रस कुमुद का ह्वे श्रीप्रियतम हेत (किससे-क्या कहें री कि यह श्रीप्रियतम हेतु कौन निधि है ) ।
प्रियतम कह रहे है कि ...ईश्वरत्व के समस्त आवरणों से परे पहुँच जो मोहे प्रेम विवश होकर माने केवल वही समझ पावे कि इस माधव के लिये क्या मधुतम मधु हैं ये मधुर पादपल्लव । रससार-माधुर्यसार-सौंदर्यसार लावण्यनिधी अतुलित कांतिसंयुत्त कोटि चंद्रमणियों को विनिन्दित करने वाली नखप्रभा आभामय अरुणचन्द्र की चंद्रिका सा पादतल जिनकी अरुणिम ललिता मेरे समस्त माधुर्य - अनुराग का उद्गम है ...क्या केवल यहीं हैं मेरे लिये ...मेरी प्रिया के श्रीचरण ! न ....न (ना कहि सकूँ री... ना)। कोई तृषित होवें मेरी हृदय तृषा का तो उतरे वहाँ इन श्रीचरणों का महात्मय मेरे हृदय से । मेरे ऐश्वर्य की गंध भी शेष न रहे चित्त में तब ही पाइयेगा इस प्रेमतृषित मोहन हृदय अभिलाषा के बिन्दु बिन्दु भरते रस सार केंद्र तली के नित्य सम्पर्क आसक्त माधव के सरस मदन को ...अन्यथा मेरी भुवनमोहिनी माया तत्पर ही है मेरे भवप्रेमी मित्र , स्वसिद्ध - बुद्ध और भोगासक्त स्थितियों की निष्ठा को क्षणार्ध भर में दिग्भ्रमित करने हेतु ।
...मेरी श्रीप्रिया ... मेरी श्रीप्रिया के पादारविन्द आह ! मेरी कोटि यात्राओं की साधना का सुफल सँग हैं ये रसनिधि पद्मपल्लव । हाँ मेरी निज साधना , प्रेम साधना जिसकी पूर्ति हुई है श्रीप्रियाचरणों का मेरे हृदय में प्राकट्य होने पर (अणु से ब्रह्म और ब्रह्म से प्रिया के प्रियतम वपु श्यामसुंदर होने पर ) । मैं अनन्त होकर चिर प्रतीक्षा मय हूँ उन अनन्त रस बिन्दुओं को श्रीचरण रूपी नव-नव सँग रूपी सुधा निधि मिलने की साधना में भरित माधव होकर ...कि आओ मेरे अभिसार स्वरूप भजो मेरे हृदय के अभिसार इष्ट निधि सुधा को और स्वयं को मुझे देकर मुझे भरने दो तुममें अपनी प्रिया की एक और भाव निकुंज लीला । श्रीपद्म की पुलकनें मेरा विलास है तो इन्हीं प्रियापद्म में छिपा है मेरा सुगोप्य अनन्त सघन विश्राम स्थल । यें लड़ैती लाडली के लालित्य में भीगे रक्तोत्पल श्रीचरण । विश्राम स्थली ...हाँ तृषित हृदय ...यही तो परम विश्राम पाता है प्रियतम प्राण श्रीकृष्ण का सुरस मधुर रस स्निग्ध हृदय । मुक्ति प्रदायक हैं ये श्रीचरण । श्रीकृष्ण को भी मुक्ति का दान देने वाले यह श्रीपद्म । तुम्हारे सर्वस्व इस श्रीकृष्ण को मुक्ति ...हाँ सत्य यह मुझे मेरे समस्त ऐश्वर्य और ऐश्वर्यबोध से मुक्त कर निजता की रसीली सेवा सुख प्रदान कर मुक्त करते बाह्य क्लेशों से और बिहरते है निज बिहार देकर श्रीविपिन सुख देकर नित्य श्रीप्रियाचरण । मेरे नयनों की प्रफुल्लता हैं ये चरण और कोमल तो इतने कि नयन दृष्टि से स्पर्श में भी संकोच होवे कि निहारन सँग कष्ट न पा जायें ये मेरी प्राणनिधी से पल्लव सुकोमल । सदा पूजित हैं मेरे उर में , सदा ध्येय हैं मेरे ध्यान में ...नित्य प्राण आराध्य हैं मेरे रस हेतु है ...श्रीप्रिया के अहैतु करुण-श्रीचरण । नित एक ही अभिलाषा , नित एक ही प्रतीक्षा , श्रीचरण दर्शन , श्रीचरण सेवा श्रीचरण सन्निधि , श्रीचरण सँग विश्राम , श्रीचरणों में सर्वस्व प्रीति । परम सुख इस हृदय का विपिन और सखी अनुग्रह से सुलभ ...श्रीस्वामिनी के श्रीचरण संवहन ...चापन ...नित निज अति सुकोमल नयन दृष्टि (कोमलता का दर्शन सामर्थ्य सखी द्वारा प्रदत) । इनकी सेवा ही मेरा जीवन है और इन चरणों की सेवा किंकरियों के सर्वस्व सुख को सर्व सेवा देना ही मेरा अभीष्ट पुरुषार्थ (कैंकर्य)। यें श्रीचरण ही मेरे कामनाकल्पतरु हैं ...यही साधना यही साध्य हैं ।यही भाव रस भरे जीवन आकांक्षा मेरी ...नित मेरे उर की तृषा हैं । नित अनन्त प्राण हृदय द्रवित हों , वह भाव रस निकुंज धरा हो जाने को तृषित... जहाँ धरें हैं प्रियाजु मेरी इन हृदयधरोहर(श्रीपद्मपल्लव को) को । परम सेव्य हैं ...परम प्रेष्ठ हैं ...सत्य कहूँ कि इन प्राणों का सहज यहीं धर्म हैं । यें नयन सदा चकोरवत् निहारण चाहें हैं ...इन सौंदर्य के धाम श्रीचरणों का सरस सुरँग सौंदर्य । मेरे हृदय पर अवस्थित होने से मेरा हृदय अनुराग इनमें अरुणवर्ण हो समा गया है या इनका परम कोमल ललित सहज माधुर्य ही मेरे हृदय में झर मेरे उर का राग अनुराग हुआ है । निश्चित ही इन्हीं की ललित लालिमा ने ...मेरे हृदय को प्रेम रंग में रंगा है । कृष्ण हृदय ने छू लिया है जबसे इन ललित चरणों को तभी से रोम रोम रंग गया है इनकी प्रेम माधुरी में सहज लाल.....
धनि धनि श्रीराधिका के चरण
सुभग शीतल और सुकोमल कमल के से वरण
धनि धनि श्रीराधिका के चरण ॥
पदपद्म रूपी निज निधि बटोर लूँ फिर करूँ और वार्ता तृषित तोसे निज प्राण बसे परम् धन की ....
(और वह श्रीपद तली के सुनिकट अधर सजाते सजाते निकुञ्ज से प्रस्थान कर गए कि निकुंज में धरत धरत पद्म पर अधर पद्म ही हो गए ...) जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
Comments
Post a Comment