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रस चैतन्य तृषित

योगमाया की सेवा है लीलार्थ विस्मरण देना । जिससे तत्काल का रस प्रकट हो श्रीहरि को ।
निकुँज में वह रँगमय सँग होते श्रीप्रिया के क्योंकि निकुँज की सब लीला तत्सुखमयी है । तो वह खेल तो रहे होते पर प्रिया का सँग वह किये कैसे यह उन्हें समझ न बनता क्योंकि प्रिया उनकी लालसा का फल बीज सब ही रहती । तो वह खेल में होते प्रियाभावित होकर वहाँ यह वह स्वयं स्वयं में भरना चाहते है पर जिस पात्र में वह निकुँज रस भरते है वह पात्र प्रिया के रँग सँग से प्रकट सखी और श्रीवृन्दावन है ।अपने से जब वह प्रिया का पात्र होते तब वह गौर है । निभृत में वह गहनतम सुख लें पाए प्रिया का , परन्तु जब वह कहें कि यह तो आपने ही पिलाया है विपिन सखी सँग हमें स्वयं पीना है यह तब वह प्रिया के प्रेम और प्रति रस के प्रति बिन्दु-बिन्दु आसक्त होकर गौरांग हो रहे होते । वहाँ वह भजते प्रिया हृदय से गहन कृष्णतम प्रियतम को और प्रियतम हृदय से प्रिया आह्लाद को । निकुँज में उन्हें मुर्च्छाएं होती प्रिया रोमांच में वह ही महाभावनाएँ गौर में है । निकुँज में सहचरी विपिन के अनुरागों सँग सहज प्रियतम । वही प्रियतम प्रिया को अपने पात्र में भर ले तो गौर । वरण जितनी भी लीला है वह उसमें इतने सहज है सहचरी (योगमाया) सँग से जैसे जल में मछली , या जीव विषयों में होता । वह अपने को रखकर जब भक्ति करना चाहते एक-एक नाम लीला क्रिया की कि प्रिया ने कब क्या खेला ? सो वह निजान्त चिंतन में विह्वल होते । सहज चैतन्य होकर , प्रिया को छूने से प्रथम स्वाद से करुणा से गम्भीरा तक वह स्वयं खेलते गौर होकर ।

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