प्रीति तट ......
प्रेम ! एक यात्रा , इस तट से उस तट तक। अपने हिये से उनके हिय तक .....इस तट मैं हूँ अपने हिय की प्यास लिये , तडप लिये पीडा विरह वेदना लिये ......उस तट केवल प्रियतम और उनका हिय । सब कहते प्रेम मैं से तू तक की यात्रा .......पर ये कोई ना कहता कि तू होना क्या ! मैं से तुम होना है , मेरी तडप से तुम्हारी तडप ......मेरी प्यास से तुम्हारी प्यास .........मेरे ह्रदय से तुम्हारा ह्रदय हो जाना .............." कन्हैया तुम्हें इक नजर देखना है , जिधर तुम छिपे हो उधर देखना है " ............ना यह प्रीत का राग नहीं , प्रीत तो नित पुकारती , जिधर देखते हो उधर देखना है ....प्रेम कब ये कहे , कि इधर देखो .........कबहुँ उन्हें ना देख , देखा है उधर , जिधर वे देख रहे ! प्यारे तुम जिधर देख रहे हो , उस तृषित दृष्टि में मुझे विलीन कर लो ........यही प्रेम का अद्वैत है , प्रेम प्रियतम से पृथक रहता ही नहीं (प्रेमी नहीं प्रेम , क्योंकी सत्ता प्रेम की होती है प्रेमी की नहीं ) । प्यारे की प्यास , प्यारे का आनन्द ,प्यारे की प्रतीक्षा ,प्यारे की लालसा यूँ समायी रहती , ज्यूँ पिचकारी में रंग ..........पिचकारी में रंग ! ......हाँ कबहुं लाल कबहुँ नील कबहुँ पीत , जो रंग भरा जावे वही सामने वाले को अपने में रंग देता ......बस यही प्रीति का विलास , जो रस प्यारे में उमगे वही ........अपनी प्यास से जब प्रियतम की प्यास तक पहुँचें , तब खिलेगी उनकी अनन्त तृषा ............उनका अनन्त सुख , तब अपनी आँखिन ते नाय , उनके नैनन ते दीख पडेगो , उनको सुखसदन ..........विरहित वे होंगे और विरहानल में दग्ध होवेगो कौन !...........दरस वे करेंगे और रससिक्त होवेगो कौन !.....वही जो इस तट से उस तट तक पहुँचेगो । प्रीती तट तक पहुँचेगो.....
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