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देश काल परे रास लीला

श्रीराधा

यह प्रश्न सर्वसाधारण के मन में आना स्वभाविक है , कि जब मात्र 11वर्ष की आयु में श्रीकृष्ण ने श्रीवृंदावन से मथुरा गमन किया , तो गोपियों के संग रास कब किया ?क्या यह कथावाचकों का फैलाया भ्रम है ? 
इस प्रश्न का उत्तर अनेक प्रकार से दिया जा सकता है , मैं कुछ उत्तर देने का लघु प्रयास कर रही हूँ ।

जब हम भगवद् लीलाओं का श्रवण , चिंतन करते हैं , तो सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि यह ध्यान रहे कि ये किसी साधारण मनुष्य (जीव )की कथा वार्ता नहीं है । भगवान के स्वरूप को जाने बिना सुनने से उन लीलाओं में शंका होना स्वभाविक है । जब हम उन परम कौतुकी की कथाओं को सुनते हैं तो वे हमें कपोल कल्पित लगती हैं । परंतु यदि मन में श्रद्धा भाव से युक्त होकर सुनी जायें , तो उनका वास्तविक स्वरूप श्रीभगवान स्वयं उजागर करते जाते हैं ।

भगवद्विग्रह सच्चिदानन्दरूप चिन्मयरसविग्रह होता है । वे किसी भी प्रकार काल तथा देश के आधीन नहीं , वरन काल तथा देश उन्हीं में विराजते हैं । यदि साधारण मनुष्य माने उन्हें तो , केवल रासलीला ही नहीं वरन बृज की समस्त लीलायें ही परम विस्मयकारी , असंभव प्रतीत होती हैं । यहाँ बात रासलीला की करनी है । तो देखिये श्रीभगवान के अवतार के समय दो प्रकार की लीला होती है ।  एक होती है जागतिक लीला ,जैसे पूतना उद्धार , बकासुर , अरिष्टासुर , आदि आदि असुरों का उद्धार , श्रीगिरीराजधरण इत्यादि ।  दूसरी लीला अप्रकट लीलायें । ये लीलायें नित्य हैं , अर्थात् सदा होती रहती हैं तथा अवतार काल की लीला से इनमें विक्षेप नहीं होता । ये समय तथा काल से परे होती हैं । रास की लीला श्रीकृष्णलीलाओं का मुकुटमणि अर्थात् सिरमौर है । प्रकट लीला में श्रीकृष्ण बाल्यावस्था में हैं तथा काल तथा देश का स्वेच्छा से वरण किये हैं , अर्थात इनकी आधीनता स्वीकार किये हैं लीला भाव के अनुकूल । यह स्मरण रहे कि भगवान में देश काल विराजते हैं ।वे समस्त विपरीत गुणों को एक ही काल में धारण करने वाले कर्तुमअकर्तुमसर्वथाकर्तुमसमर्थ स्वयं श्रीभगवान हैं । वे लीला में एक स्थान पर दर्शन देते हुये भी सृष्टि के अणु अणु में भी विद्यमान हैं । वे बाल्यलीला करते हुये भी समस्त चराचर के आदि मूल कारण हैं । जिन लीलाओं का श्रीशुकदेव जी ने श्रीमद्भागवत् जी में वर्णन किया वे प्रमुखतः जागतिक लीलायें हैं , परंतु प्रमेपथ के पथिकों के ऊपर अनुग्रह करने हेतु उन्होनें एक ऐसी लीला का किंचितमात्र उद्घाटन् कर दिया ,जो वर्तमान में मलिनबुद्धि जीवो की मति में अनेकों संशयो का कारण बनी हुयी है ।

रासलीला के समय बालगोपाल नन्दालय में अपनी शैया पर निद्रामग्न हैं । वहीं वे परमप्रेम की पुंजीभूत गोपिकाओं के मध्य सेवित भी हैं । श्रीभगवान रासलीला में लीला अनुकूल वय को स्वीकार्य किये हैं । वे एक ही समय में बालक भी हैं , नवलकिशोर भी । वे गोपिकायें जो भगवान के चिन्मय सानिध्य का लाभ ले रही हैं , उन सभी को भगवती योगमाया ने उन उन के गृहो में उपस्थित भी दिखा रखा है , क्यों ! क्योकीं जो मायिक देह इस लोक की सम्पति है , वह अपनी यथास्थिती पर है , परंतु जो दिव्य शुद्ध प्रेमसेवा भाव अपनी सिद्धि की स्थिती पर पहुंचे हैं वे श्रीभगवान के सानिध्य में हैं ।

"नासूयन खलु कृष्णाय मोहितास्तस्य मायया।
मन्यमानाः स्वपाश् र्वस्थान् स्वान् स्वान् दारान् व्रजौकसः।"

यह लीला ब्रहमा जी की एक रात्री के बराबर थी , तो भला यह किस प्रकार संभव हो गया ! उत्तर वही है कि दिव्य लीलायें देश तथा काल की सीमा से परे होती हैं । तो भला यह , कि ग्यारह वर्ष की अवस्था में रास किस प्रकार संभव , निराधार है ।

रासलीला श्रीभगवान की नितांत निजरस लीला है । यह किसी पुरुष की अनेकों नारियों के साथ कामकेली नहीं वरन परम पुरुषार्थरूपी दिव्यप्रेम के सिद्ध होने पर ,उसके परिणाम स्वरूप , स्वयं प्रेमास्पद की प्रेममयी सेवा का नितांत दुर्लभतम् आस्वादन है । मोक्ष कामना का भी त्याग कर चुकी गोपियाँ , जिनके लिये श्रीकृष्ण सुख ही मात्र अभीष्ट है , उनके भाव पूर्ति के लिये उस सच्चिदानन्दघन रसराज का सहज स्वीकार्य है । ना वे गोपियाँ पांचभौतिकी देहधारी हैं ,ना श्रीभगवान , जो उनके मध्य स्त्रीपुरुष व्यवहार हो ।

समस्त ग्रंथ अपने आप में अनेकों रहस्य समेटे हुये होते हैं , जिन्हें साधारण बुद्धि से अनावृत नहीं किया जा सकता । इन्हीं रहस्यों से अवगत् होने के लिये संत चरणों का आश्रय लिया जाता है । जब वे ही अपनी दिव्य दृष्टि तथा विशुद्ध भावों का प्रसाद देते हैं तो , भगवान की समस्त लीलाओ का यथार्थ स्वरूप हिय में उजागर हो पाता है ।
वर्तमान में यह कथा वाचकों का दायित्व है कि वे श्रोताओं को लीलाओं का यथार्थ स्वरूप भी बतावें , परंतु जब वे स्वयं ही दिग्भ्रमित हैं तो अन्य को कैसे दृष्टि प्रदान करेंगे ।
यह भ्रम , संशय वहीं होता है , जहाँ श्रद्धा का अभाव होता है , और ऐसा होने में कोई बुराई नहीं , परंतु आवश्यकता यह है कि हम स्वयं भी अपने सद्ग्रंथो का स्वाध्याय करें । केवल कथावाचको पर आश्रित न रहें ।
संतो , भक्तों , रसिकों की वाणियों के मनन का प्रयास करें  ।।
जाने बिनु न होई परतीती ।
बिनु परतीती होहिं नहीं प्रीती ।।

श्रीराधाकृष्णार्पणमस्तु :

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