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निभृत......

निभृत..........

विशुद्धतम् प्रेम अवस्था सदा ही मुखरित होती है वाणी शून्यता या अभिव्यक्ति विश्राम के रूप में सरस अनुभव होकर । शुद्ध से शुद्धतम की ओर , तरल से सान्द्र की ओर गतिमान होती प्रेम स्थिति स्वयं ही अवश होती जाती है । वहाँ केवल रस ही शेष है ,रस का वर्णन नहीं । रस स्वयं रस में लीन होकर आस्वादन करता है स्वयं का (प्रियतम सुख से)। त्रिभेद लुप्त होकर रस की , आस्वादन आस्वाद्य तथा आस्वादक नामक सत्ता को द्रवित कर मात्र रसरूप हो स्थिर है । ना भोक्ता , ना भोग्य और ना ही भोग हैं वहाँ । रसप्रेम में भीगती गहन अविचल समाधि संभवतः इस स्थिति को तनिक संकेत कर सके । गाढ से गाढ़तम होता मधु का सिंधु जैसे , जिसका प्रत्येक सान्द्र होता कण अवश होता जावे , गतिहीन सा जड़ता की ओर बहता सा ........पर जड़ता नहीं रसजड़ता में खोता ........द्वैत नहीं वहाँ मात्र एकत्व .....द्वैत हुआ तो रसास्वादन और आस्वाद्य की परिधि में विभक्त होने लगेगा । यहाँ , इस सीमा से परे वह केवल रस है । समस्त वृत्तियाँ तिरोहित हो चुकी हैं महाभाव सिंधु के अतल तल में और महाभाव परिणित हो रहा है रसराज में , जो प्रतिक्षण के कोटिनवे भाग में नित नित उमड़ रहा है महाभाव हो जाने को ........अनन्त लहरों से उछलता तरंगायित होता शोभित होता प्रेमसिंधु , परंतु सतह पर जितना चंचल , हृदय तल पर उतना ही अखंड अविचल और स्थिर ..... खेल रही हैं अनन्त वृत्तियाँ चंचल रस लहरें बनकर और सिंधु भी लहरों के संग लहराता हुआ .....परंतु उस प्रत्येक क्षण में भी गहनतम अखंड रससमाधि को धारण किये हुये । संयोग-वियोग की अनेकों रसकेलियों से शोभा पाता हुआ नित्य अखंड एकात्म में इतना लीन कि , खींच लेता वही रस बारम्बार केलि मध्य भी ...प्रतिक्षण निभृत गहनतम सिंधु के तल जैसा और इधर से उधर धावती कोटि-कोटि रस उर्मियाँ इसी अतल तल से बाहर आकर इसके सौंदर्य को अनन्त गुणित करतीं ........निकुंज से लेकर कुंजों तक बिखरी हुई सहस्त्रों भाव रश्मियाँ इसी महाभावसविता से फूटती ... ...पुनः पुनः इसे निभृत के द्वार तक ले जाती ........जहाँ क्षण-क्षण विद्युत के समान एक पल महाभाव लक्षित होता तो अगले ही क्षण रसराज ... ...प्रतिक्षण कौंधती नीलपीत दामिनी तरंगमाला ... ...नील पीत हो जाने को आकुल और पीत नील होने को लालायित .........घन में आभरित दामिनी और दामिनी लालसा में रस होते घन । वर्षण तो सेवा-श्रृंगार-परिकरियों का उत्स है और विलसन तो रस का शीतल छवियों से परस-घरस ।
यह निभृतालय रस की मधुमदिरा है जिसका सँग उत्सवित मदाकुल उलझनों को निकुंजों की संरचना में भिगोता रहता है । ...सुनो , वहाँ भूषणों की घुलती मिलती सुगन्धें कि मदिरमयता से झनक रही री ...और निभृत-लास्य का यह गीत अनन्त प्रेमावलियों में सुरभपान की पुलकनों से अभिसारित यह निभृत गीत झूम रहा ...वहीं जहाँ से लय हुआ और ...वहीं विलय हुआ , निभृत सेवा पिपासिनियाँ पूर्णभोग शून्या है , उनकी मदिर स्थितियों की छाया तो अनन्त दासियों को शरदीय कम्पनों में भिगो देती है । मदिर सघन निभृत चित्र रचना जहाँ रूप रँग से द्रवित होकर विचित्र हो ...दृश्य हुई और वह निर्मल दृश्य भी रसिली सुरभवेग सेवाओं ने उन्हें ही छुआ दिया है , युगल तृषित ......तो हे उनमें (श्यामाश्याम) बिखरी कोक-कलामय सुरभिनियों , तुम बस रँगीले रसभँवर में भर-थक रही हो और वहाँ और हिंडोलित तरल पुष्पों का लेपित रण ......नव-नव सुरभ पुलकनें और ...और थकती हमारी आहटें , चलो री ......वरण यह मद सैन ब्यार , हमें लेकर थक ना जावें ......अभी-अभी ही तो झूमें है ....यह रस आवर्त ! घुमड़ने दो ....इन्हें इनमें भरे भरे रहने दो .... श्यामाश्याम ! श्यामाश्याम ! श्यामाश्याम ! तनिक और हल्के उन्हें उनकी ही सुगन्धिनियाँ भिगोवे ....श्यामा ....श्याम ...... श्यामा ....... श्याम .......  श्य..... ।

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