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प्रेम ! तृषा की प्रौढ़ता में तृष्णा

प्रेम ! तृषा की प्रौढ़ता में तृष्णा

प्रेम एक तृषा है तत्सुख की प्रियतम के सुख की निज प्रेम पात्र के सुख की । यही सरल शब्दों में प्रेम का अर्थ है ॥ तत्सुख का आधार प्रेमपात्र से अभिन्नता है ॥ बिना अभिन्नता तत्सुख प्रकट ही नहीं होता ॥ और यह अभिन्नता प्रकट होती है गहनतम वियोग से विरह से ॥ वियोग ही प्रेमी के हृदय को गलाकर उसे प्रेम पात्र के हृदय से एक कर देने में सक्षम है ॥ संसार में हृदय भिन्न स्थिती है और देह भिन्न परंतु चिन्मय प्रेम राज्य में हृदय तथा देह में कोई भेद नहीं है ॥ वहाँ प्रत्येक अणु में संपूर्णता है प्रत्येक अंग में सर्व अंग निहित हैं तो हृदय से अभिन्नता सर्वस्व से अभिन्नता ही है ॥ जब तक द्वैत है तब तक तत्सुख असंभव है ॥ प्रेमास्पद के सुख का निज में सुखानुभव होगा ही तब जब हृदय दो न रहकर एक हो जायें ॥ एक ही हृदय दोनों में विराजित हो जाये  ॥ उस स्थिती में शायद किंतु परंतु समस्त द्वंद मिट जाते हैं ॥ जिस प्रकार अपने सुख का निर्धारण करने में हम कभी भ्रमित नहीं होते उसी प्रकार स्व का गलन होने के पश्चात प्यारे के हृदय को ही अनुभव कर कभी उनके सुख अनुसंधान में भ्रमित नहीं होते ॥ यहीं वास्तविक प्रेम का अंकुर फूटता है ॥एक तृषा का उदय हो जाता है ॥ प्रेमास्पद के सुख की तृषा ॥ दिन रैन अहिर्निश प्राण इसी तृषा से तृषित रहते हैं कि कैसे प्यारे को और अधिक सुखी करें ॥ प्रियतम के सुख की तृषा भी नित्य वर्धनशील होती है ॥यही तृषा जब अपनी सीमा को भी लाँघ जाती है तब गहन तृष्णा का उदय होता है ॥ तृष्णा वह स्थिती है जहाँ तृषा के संग पीडा का समावेश हो जाता है ॥ तृषा रूपी व्यसन का संगठित स्वरूप है तृष्णा । प्रियतम सुख लालसा में आंतरिक दाह अनुभूति , जो वाँछनीय हो जाती है ।  यहाँ एक अनिर्वचनीय पीडा प्रतिपल सर्वस्व को नित्य निरन्तर उद्देलित किये जाती है ॥ इस स्थिती की कल्पना भी असंभव सी प्रतीत होती है ॥एक गहनतम् पीडा एक परम वेदना प्रियतम् के सुख की महान तृष्णा बन प्राणों से एकरूप हो जाती है ॥ यही तृष्णा नित्य मिलन में भी वियोग की अनुभूति कराती है ॥ हृदय में चिंतन कीजिये कि प्रियतम् के गहन आलिंगन में बद्ध प्रिया जू , प्रति रोम रोम मिलित परंतु फिर भी प्यारे के सुख की तृष्णा इतनी गहरी और महान है जो उन्हें इस संयोग की अवस्था में भी वियोग अनुभूति दे रही है ॥ उनकी सरस स्मृति मात्र ही लाल जू को रस सिंधु में पूर्ण निमग्न कर देती है तो उनका प्रति रोम मिलित वपुः प्रियतम को कैसा सुख दे रहा होगा परंतु श्री प्रिया की तृष्णा इतनी गहन और महान है कि उन्हें यही अनुभूति निरंतर बनी हुयी है कि उन्हें सुख नहीं अभी  ॥ अपनी प्रिया की इस परम विचित्र परम अद्वितीय पीडामयी तृष्णा को मिटा उन्हें सुखी करने हित लाल जू प्रति रोम श्रीप्रिया के प्रेम का रसपान करने में पृवृत्त हैं परंतु चाहकर भी इसका निवारण करने में स्वयं को अक्षम पा रहे हैं ॥ दोनों दोनों को सुखी करने हित प्राणपण से तत्पर हैं परंतु श्री प्रिया की प्रेम तृष्णा ऐसी विलक्षण और वर्धनशील है कि दोनों ही व्याकुलता के महासिंधु में डूबे जा रहे हैं ॥चाहकर भी जिसका पार न पाया जा सके ऐसी प्रेम तृष्णा जो प्रिया स्वरूप है लाल जू को नित्य ही रस सिंधु में निमग्न रखे हुये भी उनके सुख के परम अभाव को ही अनुभव करती है ॥ जयजय श्रीश्यामाश्याम जी

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