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प्रतिध्वनि

प्रतिध्वनि

भजन उसी का सच्चा है जो प्रियतम के भजन को समझ सके । पुकार लगाने की नहीं सुनने की लालसा हो सके बस ॥ माधुर्य व्यसन-आसक्ति और प्रेम हो तब यह प्रीति (माधुर्य) रहस्य हृदयस्थ हो पाते है ॥ वे नित्य पुकार रहे ॥ और हमारी श्रवणेन्द्रियों तक हृदय तक उनकी पुकार पहुँच ही नहीं पा रही ॥ जीव को केवल सुननी है उनकी पुकार ॥ समस्त साधन भजन इसी हेतु हैं कि हृदय पर पडे आवरण छिन्न भिन्न हो सकें और उनकी प्रेममयी पुकार जो हृदय को स्पर्श नहीं कर पा रही इन आवरणों के कारण वह हृदय में उतर सके ॥ भजन से साधन से हृदय द्वार खुलने पर प्यारे की मधुर पुकार वहाँ प्रवेश कर सकेगी और उसके पश्चात् इधर से जो पुकारा जायेगा उन्हें वह तो केवल उन्हीं की पुकार की प्रतिध्वनि मात्र है नित्यसंगिनी है यह वेणु  , नित्य सँग कैसे हो जब नित्य ध्वनित मधुर पुकार की लालसा होवे परन्तु सत्य में वर्तमान जीव की दुर्दशा ऐसी है कि वह ऐसा साधन करता ही नहीं जिससे कर्त्तत्व का बोध छूट जावें , बहुत साधक कहते सँग करना है परन्तु नित्य ध्वनित यह अमृत रस का मंथन करने वाली वेणु की महिमा स्वीकार नहीं की जा सकती ॥ उस सर्वाकर्षिणी मधुर पुकार की मधुरता को तृषा को व्याकुलता प्रतीक्षा को जितना जितना अनुभव किया जा सकेगा उतनी ही मधुर प्रतिध्वनि स्वतःस्फूर्त होगी यहाँ से , संयोगसर्जिनि है यह वेणु ...परन्तु लेख पढ़ने भर से कुछ नहीं होगा , यह सब हजारों लोग पढ़ चुके पर जब भी वेणु को लेकर उत्सव हुआ... उपस्थित कोई ना हुआ क्यों , क्योंकि वर्तमान साधक वह सुनना चाहता है जिससे उसे शीघ्र भगवत प्राप्ति हो और जीवन भर टेलिविजन के सत्संग में कभी वेणु रस पर ऐसा कुछ किसी ने सुना नहीं कि वह परिणाम रसास्वदन है जिससे श्रीराधिका जू सहज ही बयार की तरह उड़ती हुई आती है , अर्थात यह वह श्रवण है जो नित्य गूँज रहा है श्रीप्रिया हिय निकुंज में  ॥ हम लालसा को जितना ग्रहण कर सकेंगे उतना ही लौटा सकेंगे ॥ पुकार भी भरनी होगी स्वयं में , जड़ता से उठी पुकार का कोई चेतन धरातल नहीं होता है ,  सर्व ध्वनियों में मधुरतम वेणु नाद की यह प्रियतम हिय की पुकार ही तो है न , सर्वविदित यह तत्व ॥ वेणुगान के समय समस्त त्रिभुवन में यह रव प्रवाहित हो रहा है समस्त चराचर के हृदय में उतर विवश किये दे रहा है परंतु इस वेणुरव की प्रतिध्वनि मात्र गोपियों के द्वारा ही की जा रही है प्रियतम के निकट पहुँचकर , अन्य को क्यों यह सुनाई नहीं दी अथवा वह क्यों इसे सुन जड़ होगये है क्योंकि प्रीति की मञ्जरी यह गोपियाँ ही अपनी सर्व इंद्रियों से अभिन्न रस पिलाना चाहती है प्रियतम को इसलिये उनके श्रवण पुट सुनना चाहते है प्रियतम को  ॥ शास्त्र कहता है कि गोपी सुन कर भाग रही है इस ओर ...यह विश्राम नहीं है वेणु रस का यह तो इस माधुरी के रहस्य का प्रथम पट खुला भर है । इतना जान कर भी वर्तमान साधक सुनना नहीं चाहते वेणु को , अपितु वह अपनी ऊहापोह से सदा भरे हुये , उनके हृदय का विभत्स विषाद प्रियतम सँग भी निज राग ही अलापता है तो कैसे कोई सुने ... ...प्राण प्रियतम का स्वर नित्य ध्वनित है परन्तु उसे सुनने भर की लालसा कहीं नहीं क्योंकि सभी अपने स्वरों में उलझे है , प्रियतम स्वर अनुभवित होता ही नहीं
वस्तुतः वह पुकार ही प्रीति हेतु है यह प्रणाराधिका प्रिया किस पुकार से आती है , अपने नित्य प्रियतम की पुकार से अतः जीव के हिय रूपी कुंज से श्रीप्रियतम पुकारे तब ही उनकी प्रीति अर्थात प्रियतम का निज आह्लाद कुंज की ओर आता है और वह श्रीयुगल-आह्लाद सेवा ही भक्ति है ।  प्रीति सँग से प्रियतम हुए हिय का प्रीति द्वारा मधुर प्रीत  से भरा प्रीति का स्मरण है यह रस । और यहीं रव प्रीति की सम्पूर्णता श्यामा का अभीष्ट श्रवणेन्द्रिय सुख है । और यह स्पष्ट है ही कि अप्राकृत प्रेम में रसास्वादन सर्व अंगों से होता है । अतः केवल रव सँग प्रीति ही इस प्रतिध्वनि से खींची गई है । शेष थिरता अज्ञान की जड़ता बाहर है और रसजड़ता भीतर क्योंकि वेणु रसास्वदनार्थ थिर श्रवणेन्द्रिय उस जड़ता में शेष है शेष तत्व , यहाँ तक कि अभिव्यक्ति की सम्पूर्ण स्थिति खो चुकी है । इस श्रवण में पुकार सुन श्यामसुन्दर तक जाना केवल प्रीति के लिये सम्भव है क्योंकि वह श्यामासुन्दर के सुख का ही स्वरूप है । यहाँ थिर हो श्रवण करने के उनके ही सुख हेतु स्वभाव विस्मृत स्थिति रसजड़ता है क्योंकि प्रीति को प्रीति ने चुम्बकीय रूप से खेंच लिया है ।।
सुनना नहीं चाहते वह नहीं सुन सकते , कोई अनुभव करें तो श्रीप्रियतम प्रभु ही सभी श्रोताओं से उत्कृष्ट मूल श्रोता है ...मूढ़ जीव की सभी अनन्त लालसाओं को सुन रहें वें सदा ही । वें ही श्रवण प्रदान करें कोई अनुभव करें उनके सुनने की क्षमता का ...निज पीड़ा सुनाने वाले सभी पीड़ाओं में ही छूट जाते है और नित्य मेघरागिनी प्रियतम के हिय की यह तृषित अधर रागिनी में प्रियतम हिय की तृषा को सुनने वाले ही आगे बढ़ते है । अर्थात व्यक्तिगत लालसा नहीं , नित्य रस की नित्य लालसा ही नित्य रस से अभिन्न करती है । प्रेमास्पद के प्राणों से ध्वनित इस संताप के समक्ष सारी सृष्टियों में कोई ऐसा कोमल श्रवणीय प्राण-विषादक रस नहीं ।  जयजयश्रीश्यामाश्याम जी । बात समझ बनी हो तो "युगल तृषित YUGAL  PREM RAS यूट्यूब चैनल पर कई भाग में वेणु माधुरी की कुछ महिमाये है । सुनियेगा और सुनाइयेगा साधकों को । वेणु स्तुति उनके दिए कर्षण रूपी निजहिय भजन की स्तुति है ।
           
यू ट्यूब पर सर्च कीजिये - वेणु माधुरी क्या है

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