*हे कृष्ण हे कृष्ण हे कृष्ण - हे प्रेम*
हे रसप्राण ...हे प्राणवल्लभ ...हे प्रियतम ...हे जीवनधन ॥ हे प्रेमरँग प्राण मेरे हृदय में समा जाओ न प्यारे कि मैं तुम्हें पाकर तुमसे प्रेम कर सकुँ ॥ प्यारे प्रियतम तुम ही प्रेम हो और तुम्हीं प्रेम के विषय भी तो कैसै बिना तुम्हें पाये तुम्हें प्रेम करुँ ॥ जब रस होकर... तुम हृदय में पधारते हो तभी तो ...तभी तो तुम भाते हो ॥ ज्यों-ज्यों हृदय में सरसाते हो ...त्यों-त्यों प्राणों में उतरते जाते हो ॥ तुम ही तो तुम्हारा प्रेम हो न प्यारे तो जो कुछ भी अनुभव कराता ये प्रेम वह सब तुम ही तो हो न ॥ तुम्हारे प्रेम की अनुभूति ही तो तुम्हें पाना है वास्तव में ॥ हृदय में उठने वाली प्रत्येक भाव तरंग तुम्हारा ही तो स्व-रूप है न प्यारे जो अब तुम्हारे आने से मैं अनुभूत कर रही वो सब तो तुम नित्य ही मेरे प्रति जीते हो न प्यारे ॥ तुम्हारी मधुर मुस्कान ही तो प्रेम रस है हृदय में और तुम्हारी चंचल चितवन ही प्रेम है ॥ तुम्हारा परम शीतल सुकोमल स्पर्श ही तो प्रेम है ॥तुम्हारी अंग-सुगंध ही तो प्रेम है ॥तुम्हारे मधुर शब्द ही तो प्रेम हैं ॥तुम्हारी मधुरातीत अधर सुधा ही तो प्रेम है ॥ तुम हो तो प्रेम है ...तुम ही तो प्रेम हो ॥
Comments
Post a Comment