जानना
हम सब इस शब्द के अर्थ से परिचित हैं परंतु क्या वास्तव में जानते हैं जानने के अर्थ को ॥वास्तव में जानने का सच्चा अर्थ है जीना ...डूब जाना॥ जानने का अर्थ परिचय मात्र नहीं है ,हम समुद्र को पढ़कर-देखकर जान नहीं सकते उसमें नित्य अभिन्न मछली उसके स्वभाव से परिचित है ॥ जिस चेतना अथवा तत्व को जानने की इच्छा है उसमें उतरकर उससे एकाकार हो जाना ही वास्तविक जानना है परंतु उस तत्व या चेतना से एकाकार होने के लिये स्व को खोना अवश्यंभावी है ॥ यदि स्व का सूक्ष्मतम् अणु भी शेष रह गया तो पूरा जाना ही नहीं गया अभी ॥ मैं किसी फलां व्यक्ति को जानता हूँ परंतु सूक्ष्मता से चिंतन कीजिये कि क्या मैं उसे जान रहा हूँ या उसको अपने दृष्टिकोण से किसी खांचे में ..किसी साँचे में बैठा रहा हूँ , किसी प्रसिद्ध व्यक्ति के प्रति भी एक दृष्टि होती नहीं है हमारी ...सब अपने साँचे रखते है ॥ यह खांचे तो मेरे ही द्वारा निर्मित हैं तो वास्तव में उसे जाना ही कब । जैसे ...यदि "ख" "क" को जानना चाहता है तो "क" ही होना पडेगा ॥और क होने के लिये ख को तो खोना ही पडेगा ॥ और जब ख संपूर्ण खोकर क को पूरा अनुभव कर सकेगा तो उस क्षण वह "क"ही होगा ख तो मिट चुका ॥ यदि ज्ञाता और ज्ञेय का एक हो जाना है ॥ ज्ञान की पूर्ण अवस्था पर भेद मिट जाता है जो जानने आया था वह जान चुका और जानने के पश्चात स्वयं ज्ञेय हो चुका अर्थात जिसे जानना था वहीं शेष रह जाता है परन्तु यह बौद्धिक स्थिति प्रेमरस में तीन गुणी और स्वादिष्ट रहती है , ज्ञान स्थिति में जानने वाली वस्तु ही शेष रहती है और प्रेम में रस-रसिक-रसपात्र स्थितियाँ अभिन्न होकर भी तीनों एक सँग प्रकट होती है ...प्रीति में प्रेमास्पद है प्रेमास्पद में प्रीति की अनन्त सेवा लालसाएं और यह तीनों एक सँग प्रेमी में होते है प्रीति-प्रेमास्पद-सेवा अतः रसिक सँग को भगवत्संग से भी उत्कर्ष महिमा में माना जाता है ॥ तो प्रेम में जानने की यात्रा इतनी गाढ़ मधु होकर सजीव सेवा होती है कि इस स्थिति में स्थिति हुए बिना इसकी कल्पना नहीं हो सकती ...उस स्थिति को किसी विधि से छुआ नहीं जा सकता उस स्थिति का परमाणु हमारे भीतर विस्फोट होवें तब ही यहाँ अस्तित्व में आई प्रलय से जीवन नवीन सृष्टियों को देखता है ...यह विस्फोट होता है रसिक सँग से । ...संक्रमण से ।
जानने की जितनी भी उपलब्धि हमें मिलती है वह यहीं है अर्थात मीन होकर समुद्र का अनुभव ही हमारे समस्त धर्मग्रंथों में अथवा कहा जाये की जीवन ग्रँथों में इसी स्थिती को पुनः पुनः कहता गया है ॥
श्रीरामचरितमानस मानस में गोस्वामीजी कह रहे हैं "सोई जानत जनु देई जनाई जानत तुमहि तुमहि होई जाई "॥ तो जानने का अर्थ ही है स्वयं को खो देना ॥ मानस-तुलसीदासजी-राम अभिन्न एक तत्व है , कोई यह कहे कि मैं अमुक तत्व को जानता हूँ अथवा अमुक चेतना को उसके मन को स्वभाव को तो यह नितांत भ्रम ही है क्योंकि जब तक मैं अर्थात् जानने वाला शेष है को वास्तव में जाना ही नहीं गया । कुछ अंश में जानना कवि का जानना है जो चोर की भांति उस ज्ञेय की चेतना में प्रवेश कर उसके किसी अंश को अनुभव कर आया है ॥ ज्ञाता और ज्ञेय की अभेदता धर्म में ( आध्यात्म ) में ही घट सकती है ॥ यहीं समग्रता से जानना संभव है ॥
आप, मैं सब ही शेष विषय या तत्व को जानना चाहते है जबकि वह तत्व केवल अभिन्नत्व चाहता है ।
डिस्कवरी पर हम देखते है कि किसी समुद्री जीव के पीछे-पीछे गोताखोर रहता है , यहीं विकल्प है ...अनुसरण । किसका जो डूबा हुआ है उसका , मछली को बाहर निकाल कर उससे समुद्र की महिमा नहीं पूछी जा सकती है , बस उस मछली के जीवन का जीवन रहते अनुसरण कर लेना ही समुद्र का थोड़ा अनुभव है और यह अनुभव कभी पूर्ण हो नहीं सकता है क्योंकि समुद्र की विशालता के अनुभव के लिए उसके प्रत्येक तत्व को समझना होगा ...एक मछली के जीवन का अनुभव कर उसकी दृष्टि का समुद्र अनुभव हो सकता है । यहां एक बात विशेष है मछली को समझना ही समुद्र के रहस्य को समझना भी है ...भेद नहीं है यहाँ ! बात समुद्र की होवे तो भी मछली का स्वरूप किसी अध्याय में खुलेगा और बात मछली के अध्ययन की होवें तो समुद्र तो वहाँ है ही यही सचेतन सर्व मछलियों सँग समुद्र का सम्पूर्ण अनुभव एक शब्द में ...नारायण है ...सचेतन रस सुधा को ही नार कहा गया है ।
हमारे संपूर्ण आध्यात्म का उद्देश्य ही अभेदता प्राप्त करना है ॥ पूर्ण अभेदता प्राप्त भी केवल उसी परम सत्ता परम चेतना से की जा सकती है ॥ क्योंकि परम ज्ञेय ही वही है ॥ ज्ञेय अर्थात् जानने योग्य ही वही है और जब तक "वह"जाना नहीं जायेगा तब तक बार बार संसार में पुनरावृत्ति होती रहेगी क्योंकि संसार है ही इसिलिए की उस परम चेतना को जान लिया जावे ।। तृषित ।। किसी भी भगवत-प्रेमी का भगवत रस से पृथक कोई जीवन नहीं होता... अतः वह सँग कृपा प्रसाद से अभिन्न रस का विस्फोट कर सकता है ...किसी भावुक को उसके भाव के विषय-आश्रय से पृथक समझना ...वैसा ही अपराध है जैसे मृत मछली के भक्षण द्वारा सामुद्रिक तत्वों का अनुभव होना । जीवन से जीवन का अनुभव है .... जयजयश्रीश्यामाश्याम जी ।।
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