प्रेम के पँछी हो तो उड़ जाओगें सागरों की धमनियों में तैर जाओगें फूलों को और मधु में भीगो जाओगे ... बसन्त में बरसते मकरन्द ... देख पाओगे हर सुबह नए हो खिल जाओगें सब रातों में उनकी बाँहों में पिघल पाओगे टपकते हुए मोती उड़ते हुए श्रृंगारों की महकते गुच्छों में धँसते जाओगें खड्गों की झगरन को सरोद-सितारों की फिसलन सुनोगें जब जो चखोंगे अमृत ही कहोंगे जितने जलोगें उतने रसीले पकोंगे महारात्रि में समा चेतन वेदी बनोंगे आज्य हो तुम रँग-पिचकारी भी बनोंगे ... संसृतियों के प्रवाह में ललित महोत्सवों के आमंत्रण छुओगें प्रचण्ड द्वन्द के कोहरे में शरदित मेह केलि पहन सिहरोंगे टपकोंगे ... ... चरण तली में लिपटने को प्राण-प्राण भर बरसोंगे घूँघट में चहकोंगे दृग कनीनिकाओं के रास बाँधोगे हवाओं में उड़ते श्रवण पुटों को झुमकों में बाँध ... सचल प्रीत की ललित सजनी रहोंगे छू गए जो प्रेम को जहाँ रहोंगे प्यासे रहोंगें हो सकें पँछी , कहीं प्रेमी तो अशान्त ह...